Monday, April 11, 2022

 

मइयत-ए-माबदौलत की की गुल पुशार मैंने

 

अपने मज़ार पे मैंने चढ़ाये जा के फूल ,

ये सोच आदमी ठीक था इतना बुरा था।

था बदमिजाज़ कुछ , कुछ बद्सलूक  भी ,

अपनी एना में मस्त , दिल का बुरा था।।

 

खाये हुए था चोट इशक के बाजार में ,

ये सौदा एक छोड़ , वो सौदागर बुरा था।

मयखानो की दहलीज़ पे रगड़ी थी नाक भी ,

मेहरम तलाश -गु  था पर रहबर बुरा था।।

 

बहला  के छोड़  आया था सहर  की हद से दूर ,

लौटा तो हुआ पास  कि वो रहबर बुरा था।

अब जाऊं कुंकर ढूंढने , जंगल कि गार में ,

था रास्तों का ज़ौक़ , मुसाफिर बुरा था।।

 

कोसूं  भी तो कोसूँ उसे किस मज़ाज़ में ,

था वक़त का तकाज़ा वो हर पल बुरा था।

वो जोश वो होंसले हुए पसत  कुछ इस तरह ,

कफ़न-पोश सो रहा , मगर वो सिकंदर बुरा था।।


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  मइयत-ए-माबदौलत की की गुल पुशार मैंने   अपने मज़ार पे मैंने चढ़ाये जा के फूल , ये सोच आदमी ठीक था इतना बुरा न था। था...