क्या तप तप बन रहा,
ये मेरा मन कुन्दन ?
मेरी तूँ उल्झन,
मेरी तूँ निश्मन।
क्या उलझा के मुझे,
तूँ पा रही सुल्झन ?
छुङा के यूँ दामन,
तोङ के सोपनापन।
झन्झोङ दिया मानस,
तज दिया कायामन।।
कठॊर हुआ दरपन,
दरसाता कालापन।
क्या यही है हीना,
और मेरा अपनापन ?
ले कर ये हारापन,
समेट के ये तङपन।
क्या तप तप बन रहा,
ये मेरा मन कुन्दन ?
कलमबधः मई १८,२००७
3 comments:
सुन्दर प्रस्तुति। भाई बताऊँ की मेरा नाम भी कुन्दन ही है। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं इस कविता की अपनी मातृभाषा "मैथिली" में अनुवाद कर अपने ब्लॉग (http://www.vidyapati.org) पर प्रकाशित करना चाहूँगा। आपकी जवाब की प्रतीक्षा रहेगी।
कुन्दन कुमार मल्लिक,
मो- 09739004970 (बंगलोर)
Sure Bro, You may translate this poem in Maithali and post it on your blog.
Thanks for response.
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