Wednesday, November 14, 2007

कुन्दन

भरा भारी जला मन, असीमित असहाय सूनापन। 
क्या तप तप बन रहा, ये मेरा मन कुन्दन ? 

मेरी तूँ उल्झन, मेरी तूँ निश्मन। 
क्या उलझा के मुझे, 
तूँ पा रही सुल्झन ? 

छुङा के यूँ दामन, 
तोङ के सोपनापन। 
झन्झोङ दिया मानस, 
तज दिया कायामन।। 

कठॊर हुआ दरपन, 
दरसाता कालापन। 
क्या यही है हीना, 
और मेरा अपनापन ? 

ले कर ये हारापन, 
समेट के ये तङपन। 
क्या तप तप बन रहा, 
ये मेरा मन कुन्दन ? 

  कलमबधः मई १८,२००७

3 comments:

कुन्दन कुमार मल्लिक said...

सुन्दर प्रस्तुति। भाई बताऊँ की मेरा नाम भी कुन्दन ही है। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं इस कविता की अपनी मातृभाषा "मैथिली" में अनुवाद कर अपने ब्लॉग (http://www.vidyapati.org) पर प्रकाशित करना चाहूँगा। आपकी जवाब की प्रतीक्षा रहेगी।
कुन्दन कुमार मल्लिक,
मो- 09739004970 (बंगलोर)

. said...

Sure Bro, You may translate this poem in Maithali and post it on your blog.
Thanks for response.

. said...
This comment has been removed by the author.

  मइयत-ए-माबदौलत की की गुल पुशार मैंने   अपने मज़ार पे मैंने चढ़ाये जा के फूल , ये सोच आदमी ठीक था इतना बुरा न था। था...