आदमी खङा इक छोर बन फकीर।
कुछ तो गुज़रे बन झोंका हवा का,
कुछ देखते उन को हुऍ स्थीर।।
वो देखो जो आगे बढा मुझ से,
समाज के बन्धनों से मुक्त था अमीर।
मैं नगे पाँव, भुखे पेट, नगे तन,
चलूँ सङक पे उस संग या संभालूँ ये शरीर।।
यदि चला तो और भी दम भरने होंगे,
दौङ में रखा ही क्या है ऍसा आख़ीर।
खङा हूँ तो कोस सकता हूँ मैं सबको,
जो समर्थ हुऍ मापने में वो लकीर।।
सब के सब थे झूठे और धोखेबाज़ ,
मैं बेबस हूँ, बिन साधन गरीब।
कोसने में औरों को है कितना आनन्द,
और होङ में चलना कितना हकीर।।
मैं दोषी हूँ अपने अस्तीत्व का,
देखा किऍ हूँ औरों को यूँ गुज़रते।
कभी इच्छा भी नहीं हुई बढने की,
चुँकि डरता हूँ मैं अपना भाग्य बदलते।।
कैसै कह सकूँगा मैं हूँ तरस योग्य,
लोगो मैं बैठा हूँ हाय सङक किनारे।
हाथ टाँगे होते हुऍ भी इक अपाहिज़,
मैनें साहस कर दिया बेबसी सहारे।।
पढ़ा था कहीं कभी न साहस खोना,
पर कितना सहज है यूँ बेबस होना।।
कलमबधः जुलाई २५,२००७
यह कविता मैनें ' सड़क, आदमी और आसमान' के लिये शुरू की थी, परन्तू कुछ व्यस्त होने के कारण समय पर पूरी नहीं कर पाया।
कविता उन महार्थियों को समर्पित है, जो बेबसी का दामन यूँ दोनों हाथों से पकङे हुऍ हैं। कहीये तो आप को कैसी लगी? हकीर= कठिन
1 comment:
achchee kavita lagi.
shubhkamnayen.
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