मइयत-ए-माबदौलत की की गुल पुशार मैंने
अपने मज़ार पे मैंने चढ़ाये जा के फूल ,
ये सोच आदमी ठीक था इतना बुरा न था।
था बदमिजाज़ कुछ , कुछ बद्सलूक भी ,
अपनी एना में मस्त , दिल का बुरा न था।।
खाये हुए था चोट इशक के बाजार में ,
ये सौदा एक छोड़ , वो सौदागर बुरा न था।
मयखानो की दहलीज़ पे रगड़ी थी नाक भी ,
मेहरम तलाश -गु था पर रहबर बुरा न था।।
बहला के छोड़ आया था सहर की हद से दूर ,
लौटा तो हुआ पास कि वो रहबर बुरा न था।
अब जाऊं कुंकर ढूंढने , जंगल कि गार में ,
था रास्तों का ज़ौक़ , मुसाफिर बुरा न था।।
कोसूं भी तो कोसूँ उसे किस मज़ाज़ में ,
था वक़त का तकाज़ा वो हर पल बुरा न था।
वो जोश वो होंसले हुए पसत कुछ इस तरह ,
कफ़न-पोश सो रहा , मगर वो सिकंदर बुरा न था।।
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