Wednesday, November 14, 2007

कैसै कहूँ ॰॰॰॰॰॰॰॰

कैसे कहूँ, 
कह न पाऊँ, 
इक अटकी हुई सी बात। 
आतुर हुई सौबार कह दूँ, 
पर मन ने दिया न साथ।। 
 कहना ही होगा, 
अपने मूँह से, 
कयूँ सो नां पाऊँ हर रात, 
है याद सताती, 
नींद ना आती, 
करवट बदलूं तलक परभात।। 
  वो अनाङी, 
कुछ सम्झ न पाये, 
आँचल लुडकाऊँ, 
उठाऊँ हाथ। 
नैन से नैन मिलाए नां बैरी, 
मैं मन तङपूँ, सुलगूँ गात।। 
  हे राम उसे दे कुछ तो सुबुधी, 
या बंधा ना मेरी ये आशा, 
मेरे प्यार को यूँ गूंगा ना कर, 
देदे मुझे कहने को परिभाषा ।। 

  कलमबधः नंवम्बर ११,२००७

जागो और जागते रहो॰॰॰॰॰॰॰

गांधी का और नेहरू का, वो संक्लप अभी अधूरा है,
पूरा नहीं हुआ, काश्मीर में हो या वो अरूणाचल है।
अभिष्ट नेताओं को मत देखो, वे सब व्योपारी हैं,
बेच डालेंगें, देश की रेत तक, जो मात्रभूमी का आँचल है।।

आवाज उठाओ, तङागी कस लो, ओर मिलाओ हाथ से हाथ,
जङें हिला दो इस भ्रीष्टाचार की, और तोङ दालो ये बेचारीगी के बन्धन,
अगर अब न जागे, तो कुम्भकरण से सोये रहोगे अंनत तक,
अपना कर्म धर्म निभाओ तुम ही, तुझे ही सुल्झानी है तेरी उल्झन।।

मत देखो औरों के हाथों को, उन की आँखें षङयन्त्र लिये हैं,
आवाज देने पर दोङे आँवेंगे, घुसने की कब से हैं आस लगाये।
तुम बलवान बनो, इन्सान बनो, सत्यवान बनो, हिन्दोस्तान बनो,
यदि हम सब ऍक हैं तो फिर क्यों शत्रु अपने घर में घात लगाये।।

कलमबधः अगस्त ५,२००७

ये सङक और हाय मैं॰॰॰॰॰॰॰

दूर तक जाती बल खाती काली लकीर, 
आदमी खङा इक छोर बन फकीर। 
कुछ तो गुज़रे बन झोंका हवा का, 
कुछ देखते उन को हुऍ स्थीर।। 

वो देखो जो आगे बढा मुझ से, 
समाज के बन्धनों से मुक्त था अमीर। 
मैं नगे पाँव, भुखे पेट, नगे तन, 
चलूँ सङक पे उस संग या संभालूँ ये शरीर।। 

यदि चला तो और भी दम भरने होंगे, 
दौङ में रखा ही क्या है ऍसा आख़ीर। 
खङा हूँ तो कोस सकता हूँ मैं सबको, 
जो समर्थ हुऍ मापने में वो लकीर।। 

सब के सब थे झूठे और धोखेबाज़ , 
मैं बेबस हूँ, बिन साधन गरीब। 
कोसने में औरों को है कितना आनन्द, 
और होङ में चलना कितना हकीर।। 

मैं दोषी हूँ अपने अस्तीत्व का, 
देखा किऍ हूँ औरों को यूँ गुज़रते। 
कभी इच्छा भी नहीं हुई बढने की, 
चुँकि डरता हूँ मैं अपना भाग्य बदलते।। 

कैसै कह सकूँगा मैं हूँ तरस योग्य, 
लोगो मैं बैठा हूँ हाय सङक किनारे। 
हाथ टाँगे होते हुऍ भी इक अपाहिज़, 
मैनें साहस कर दिया बेबसी सहारे।। 

पढ़ा था कहीं कभी न साहस खोना, 
पर कितना सहज है यूँ बेबस होना।। 

  कलमबधः जुलाई २५,२००७ 

यह कविता मैनें ' सड़क, आदमी और आसमान' के लिये शुरू की थी, परन्तू कुछ व्यस्त होने के कारण समय पर पूरी नहीं कर पाया। कविता उन महार्थियों को समर्पित है, जो बेबसी का दामन यूँ दोनों हाथों से पकङे हुऍ हैं। कहीये तो आप को कैसी लगी? हकीर= कठिन

फिर तेरी याद आई॰॰॰॰॰

दिन ढ़ले चली धिरे से पुरवाई, 
अल्साये तन ने ली अंगङाई। 
फिर मन ही मन मैं मुस्काई, 
कल शाम फिर तेरी याद आई।। 

 कोई पास से गुजरा अहसास हुआ, 
तेरी खुशबू का आभास हुआ। 
किसी ने हल्के से छुआ ये पास हुआ, 
कोई ना पा हृदय उदास हुआ।। 

रिमझिम रिमझिम आईं फूहार, 
कसक उठी ख़तम हो इंतज़ार, 
छेङे कोई कोयल मल्लहार, 
तोङ बन्धन प्रियतम,बरसाओ प्यार ।। 

तुम आंश्कित, भर्मित, कूङ रहे, 
अपने ही आप से जूझ रहे। 
मैं हूँ तेरी ना बूझ रहे, 
विश्वत करने के यत्न न सूझ रहे।। 

जब तक दिल से दिल की राह बने, 
हों ऍक तन-मन चाह बने, 
तुम आवो कि सावन माह बने, 
कहीं मेरी ये चाह न आह बने।। 

  सब काम तुम्हारे कभी न हल होंगे, 
गुज़र रहे जो अब, कल बीते पल होंगे। 
कचे घाव दुखते भरे गरल होंगे, 
बुझे चिराग फिर जगने न सरल होंगे।। 

  कलमबधः जुलाई ९,२००७

कल फिर तेरी याद आई....

कल हारे, संमुदर किनारे, 
सुरमई शाम में, 
झंझोङ उल्झे आश्तित्व को, 
बिखरा दीं मैनें अपनी जुल्फें,
बिछा दिये आतुर नैन, 
मांगी, तेरे लिये इक दुआ, 
फिर देर तक सन्नाटे में, 
कुछ भी न था, 
कहने को, 
करने को, 
सोचने को, 
ऎसे में झुंझला के, 
जैसे लिखा था तूनें...... 
भीगी रेत पर,
मैनें अपना नाम लिखा....... 

  कलमबधः जून २२,२००७

मैनें बाप चुना

जब भी मैनें अपना बाप चुना,
ना जाने कितना कहा सुना।

ईक बाप वहाँ था जब आँख खुली,
मैने उसे कहा 'बा' तुतली तुतली,
पर जाने कहाँ वो चला गया।
माँ कहती रचाया उसने व्याह नया।।

फिर मैने सोचा, कुछ भी हो,
बाप तो चाहिये, इक ना दो।
माँ बोली भगवान अब बाप तेरा,
रक्षक, भक्षक तेरा ओर मेरा।।

पर कैसा बाप है अन्जान गुनी,
ईक बात मेरी उस ने ना कभी सुनी।
तूँ देख ना पायेगा उस को कभी,
तेरा बाप है वो, ये जाने सभी।।

फिर इक दिन गलियों में हुई चर्चा,
बाप बनने चला कोई, निकला पर्चा।
मैं तो पहले ही इस ताक में था,
कोई बाप चुन सकूँ, गर हो ऍसा।।

माँ बोली ये 'बाप' वो नही बेटा,
ये भक्षक है, इसे कहते नेता।
पर मेरे मन में थी आग लगी,
लोगों की बातें सुन कुछ आस बधी।।

बीना सोचे समझे मत दे डाला,
उत्र हुआ आलिंगन को, जैसे कुंवारी बाला।
हुऎ उजागर, शिघ्र ही बाप के दांत,
पेट में आन्तों की बंध गई गांठ।।

मां बोली अब ना इसका उपचार कोई,
सहने होंगे, नऎ अत्याचार कई।
भोगो, इस लाडले बाप का प्यार,
न कहती थी चुनना सब सोच बिचार।।

अब सोचता हूँ, अपना करा-धरा,
ऎसे बाप बीना था क्या रूका पङा।
इस बाप का गला अब कैसे धोटूँ,
तोबा,
फिर ऎसे बापों से कर लूँ।।

अब बिन बिचार मत ना दूँगा कभी,
जो सही होगा, और हो जिन्दा दिल भी।
जनता की सोचे, ना अपना पेट भरे,
देश को बांधे, ना इसको गिरवी धरे।।

ये पाँच साल तो कैसे भी पूरे कर लूँगा,
अपना ही दोष जान, सीने पे पत्थर धर लूँ गा।
अगर फिर कभी इस कमीने ने मत मांगा,
इस की तो मैं ऎसी तैसी कर दूँगा।।

कलमबधः जून २०,२००७

कुन्दन

भरा भारी जला मन, असीमित असहाय सूनापन। 
क्या तप तप बन रहा, ये मेरा मन कुन्दन ? 

मेरी तूँ उल्झन, मेरी तूँ निश्मन। 
क्या उलझा के मुझे, 
तूँ पा रही सुल्झन ? 

छुङा के यूँ दामन, 
तोङ के सोपनापन। 
झन्झोङ दिया मानस, 
तज दिया कायामन।। 

कठॊर हुआ दरपन, 
दरसाता कालापन। 
क्या यही है हीना, 
और मेरा अपनापन ? 

ले कर ये हारापन, 
समेट के ये तङपन। 
क्या तप तप बन रहा, 
ये मेरा मन कुन्दन ? 

  कलमबधः मई १८,२००७

क्षणभंगुरता

देख अर्चना मुस्कराहट की, 
पुष्प अधरपतियों पे, 
काँप उठता है हृदय, 
ये सोच, 
कि कल भी हँसे थे कुछ फुल, 
हाँ इसी तरह ।। 

  कलमबधः मई १८,२००७

  मइयत-ए-माबदौलत की की गुल पुशार मैंने   अपने मज़ार पे मैंने चढ़ाये जा के फूल , ये सोच आदमी ठीक था इतना बुरा न था। था...